कितने लोगों ने कितनी ही बार ये सोचा होगा,
सोते जागते इन सपनों को बुना होगा।
कितना अच्छा होता कि सब कुछ मन चाहा होता,जो मन होता वो कर जाता, जहाँ मन चाहे टहल आता।
काश!! सब मन चाहा होता…तो कितना अच्छा होता।
पर जिंदगी इंस्टेंट नूड्ल्स की तरह नहीं होती वो तो एक स्वादिष्ट डिश की तरह होती है,
जिसे पकने में काफ़ी समय, काफ़ी धैर्य, काफ़ी कौशल और काफ़ी कला लगती है।
जहाँ नमक, मिर्च और मसालों का समायोजन एकदम संतुलित होता है,
कोई भी स्वाद एक दूसरे को ओवर पॉवर नहीं कर रहा होता है।
वैसे ही ज़िंदगी होती है जहाँ बहुत से रिश्ते बनते और बिगड़ते रहते है,
आगे बढ़ने और ऊँचा बनने की लड़ाई में एक दूसरे से कितना झगड़ते रहते है।
खुद को ऊँचा उठाने की कोशिश करे, दूसरों को गिराने की नहीं,
सब कुछ मनचाहा मिल जाता तो जिंदगी का ये स्वाद रह जाता, कहिए सही कह रही हूँ या नहीं।
जो मनचाहा मिलता है उसका स्वागत करे, उसका आंनद ले।
और जो नहीं मिला है उसके बारे में सोचकर खुले रास्तों को बंद ना करे।
©®दीपिकामिश्रा
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कोशिशें
साँसें चल रही है तो उम्मीद अभी भी बाकी है।
हारी नहीं हूँ मैं, कोशिश अभी भी जारी है।
माना कि मुश्किलों भरी है राह मेरी और तूफानों का दौर है,
पर ढिगा नहीं है विश्वास मेरा, जंग अभी भी जारी है।
फिर उठूँगी गिर कर भी मैं, लड़खड़ाते क़दमों से भी,
कोई हो ना हो साथ मेरे पर ज़िन्दगानी अभी भी बाकी है।
भले ही जल गई हो लकड़ियाँ मेरे चूल्हे की,
पर उनकी राख अभी भी बाकी है।
जख्म हरे कर जाते है कुछ घाव पुराने भी,
आँखों में नमी हो भले ही पर होठों पर मुस्कान अभी भी बाकी है।
©®दीपिका
सुनिये पॉडकास्ट पर!
https://anchor.fm/deepika-mishra/episodes/Umeed-Abhi-Bhi-Baki-Hai-ebf502
कुछ तेरी,कुछ मेरी बराबरी वाली दुनिया।
कुछ तेरी, कुछ मेरी, कुछ आधी आधी ही सही।
मैं चाहती हूँ कुछ सुनना, कुछ सुनाना,कुछ तेरी अनसुनी और कुछ मेरी अनकही।
जहाँ मैं साझा कर सकूँ अपना मन बेझिझक,चाहती हूं वो दुनिया बराबरी वाली।
जहाँ तुम भी समझो मुझे और मुझ से जुड़ी हर फिक्र,चाहती हूँ वो दुनिया बराबरी वाली।
जहाँ मुझे रोका न जाए संस्कारों के नाम पर।
जहां बदल न जाए ज़िन्दगी सिर्फ एक नए रिश्ते में बंधने पर।
जहाँ मुझे तोला ना जाए दूसरों की बनाई कसौटियों पर।
जहाँ मैं खुद तय सकूँ कि बाहर जाकर काम करना है या होम मेकर बनकर रहना है घर पर।
जहाँ मैं जी सकूँ अपने हिस्से का जीवन और नाप सकूँ अपने हिस्से का आसमां।
जहाँ सिर्फ़ मुझे न दी जाएं बेटी,बीवी, बहूँ और एक माँ की उपमा।
कुछ तेरी, कुछ मेरी, कुछ आधी आधी ही सही।
मैं चाहती हूँ कुछ सुनना, कुछ सुनाना,कुछ तेरी अनसुनी और कुछ मेरी अनकही।
जहाँ मैं साझा कर सकूँ अपना मन बेझिझक,चाहती हूं वो दुनिया बराबरी वाली।
जहाँ तुम भी समझो मुझे और मुझ से जुड़ी हर फिक्र,चाहती हूँ वो दुनिया बराबरी वाली।
महिला दिवस की ढेरों शुभकामनाएँ
©®दीपिका
https://myaspiringhope.wordpress.com/2020/03/05/barabari-ka-daawa/
कुछ सवालों का जवाब ढूंढ़ना ही होगा।
जो भाईचारे को भी धर्म की दृष्टि से देख रहे है वो हमारे पड़ोसी नहीं हैं।
वो तो कोई और है।
हमारे पड़ोसी तो आज भी वही लोग है जो हमारी मदद को हमारे परिवार से भी पहले आगे आते है।
ये जो हिंसा हो रही है उसमें आप जैसे, हम जैसे लोग शामिल है, इस पर अभी भी विश्वास नहीं होता।
क्यूँकि बेगुनाहों का घर यूँ ही उजाड़ देना तो हमारी संस्कृति नहीं है।^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
कौन है वो लोग जो कत्लेआम मचा कर चले गए।
चंद लोग फिर भी हिन्दू मुस्लिम की राजनीति में लग गए।
क्यूँ?अपने आस पास देखती हूँ तो बंटवारा नज़र नहीं आता।
फिर वो कौन लोग है जिन्हें भारत को बँटा हुआ बताने में ही मज़ा आता।
क्यूँ?कुछ चंद लोगों को बिल्कुल हक नहीं है सबका नुमांइदा बनने का।
आश्चर्यचकित हूँ कैसे हम देख रहे है इस दरिंदगी को और बन रहे है उस भीड़ का हिस्सा।
क्यूँ?किसी की गलती करने पर उससे बड़ी गलती करना हमारी समझ तो नहीं है।
क्या कर रहे है हम? क्यूँ डर रहे है हम? किससे छिप रहे है हम?
इन सवालों का जवाब शायद हमारे पास नहीं है।इन सवालों का जवाब अब हमें ढूंढ़ना ही होगा।
क्या चल रहा है? क्यूँ चल रहा है? समझना ही होगा।
©®दीपिका
बेजुबां प्यार
प्यार एक अनुभूति है, एक एहसास है।
शब्दों में बयां करना पड़ता नहीं इसे, गर बोलते आपके जज़्बात है।
गर बिन बोले समझ जाएं वो मेरी हर अनकही को, मेरे लिए वो ही सच्चा प्यार है।
और प्यार में दिखावे की कतई जरूरत नहीं होती, जो करे इज़्जत और कद्र मेरी शख्सियत की, वो ही सच्चा यार है।
नैनों से बातें करने की कला सबको आती नहीं है।
चुपके से नज़रें चुराकर दीदार की उसकी आदत मुझे सबसे ज्यादा भाती है।
जब भी आँखे बंद करके माँगा तुम्हें, तुम सामने ही थे।
शायद समझते थे मेरी बंदिशों को इसलिए मेरी दुआओं में थे।
हाथ पकड़ कर साथ साथ चलना ही आशिकी नहीं है।
साथ निभाना एक दूसरे की मुश्किलों में ही असली चुनौती है।
प्यार एक अनुभूति है, एक एहसास है।
शब्दों में बयां करना पड़ता नहीं इसे, गर बोलते आपके जज़्बात है।
©®दीपिका
कविता को सुनने के लिए क्लिक करे इस लिंक पर।
तेरा मेरा रिश्ता
https://myaspiringhope.wordpress.com/2019/10/17/tera-mera-rishta/
तेरा मेरा साथ
https://myaspiringhope.wordpress.com/2019/11/27/tera-mera-sath/
माँ का प्यार
माँ के चरणों में संसार और आँचल में ढ़ेर सारा प्यार होता है।
चाहे दुनिया इधर की उधर हो जाए, माँ का प्यार अपने बच्चे के लिए कभी भी कम नहीं होता है।
माँ के हाथ के बने खाने का दुनिया में कोई मोल नहीं है।
कैसे तोल सकता है कोई तेरे प्यार को, ए माँ! ये कोई बिकाऊ थोड़े ही है।
बस अपना प्यार और आशीर्वाद सदा यूँ ही बनाए रखना, माँ!
तुम जुग जुग जिओ हज़ारों साल, ये ही है तेरे बच्चे की दुआ, माँ।
कितने दुःख दर्द वो अपने बच्चे के लिए हँसते हँसते पी जाती है।
दुःख तो तब होता है जब उसके निःस्वार्थ प्रेम को स्वार्थ की परिभाषा दी जाती है।
शायद समझा नहीं सकती है वो अपनी भावना को शब्दों में।
बच्चा बस खुश रहे, तरक्की करे, ये ही दुआ होती हआई उसकी प्रार्थनाओं में।।
माँ के चरणों में संसार और आँचल में ढ़ेर सारा प्यार होता है।
चाहे दुनिया इधर की उधर हो जाए, माँ का प्यार अपने बच्चे के लिए कभी भी कम नहीं होता है।
©®दीपिका
https://myaspiringhope.wordpress.com/2019/08/23/maa-ek-pharishta/
पतंग और डोरी जैसा है साथ।
उड़ चलूँ तेरे संग बेफिक्र खुले आसमां में,
नई ऊंचाईओं का स्वागत करने।
खुद को नई ऊर्ज़ा, नए उत्साह से भरने और
नए लक्ष्य को प्राप्त करने।
पतंग और डोरी जैसा है साथ तेरा मेरा,
बाँधे रखे तू मुझे अपने प्यार के बंधन में, कहलाऊँ मैं तेरी हमजोली और तू हमसफर मेरा।
कभी ना टूटने पाए ये बंधन है विश्वास का,
मेरी आस का और तेरे होने के एहसास का।
मेरे समर्पण का और तेरे धैर्य का,
मेरे स्वाभिमान का और तेरी शान का।
उड़ चलूँ तेरे संग बेफिक्र खुले आसमां में,
नई ऊंचाईओं का स्वागत करने।
खुद को नई ऊर्ज़ा, नए उत्साह से भरने और
नए लक्ष्य को प्राप्त करने।।
https://myaspiringhope.wordpress.com/2019/11/27/tera-mera-sath/
©® दीपिका
लक्ष्य जरूर बनाओ।
लक्ष्य जरूर बनाओ, दुनिया को बताओ या ना बताओ।
छोटे छोटे ही सही पर एक एक कदम आगे बढ़ाओ।।
ये कर्मक्षेत्र है तुम्हारा, तो जाहिर है कि अधिकार क्षेत्र भी, तुम्हारा ही होगा।
हर सही गलत में संभल कर कंकड़ों से खालिश हीरा अब चुनना ही होगा।।
हार मान जाना, हल नहीं है किसी भी मुश्किल का।
आँसू पोंछ कर, अब नई ऊर्जा से अपनी बाजुओं में बल भरना ही होगा।।
तुम युवा हो, संभावनाओं का असीम भंडार है तुम में।
अपने हर डर से लड़ते हुए अब खुद अपने लिए चुनौती बनना ही होगा।।
©®दीपिका
जरूर देखे, क्या है ज़िंदगी?
कद बड़ा या सोच?
शालिनी चुलबुली सी और प्यारी सी एक लड़की थी जो हमेशा हँसती खेलती रहती थी। पढ़ाई में अव्वल, खेल कूद में आगे, घर के कामों में निपुण। सब कुछ परफेक्ट सा था उसका। किसी का दिल दुखाना क्या होता है? उसे पता तक नहीं था, अपनी दुनिया में मस्त एक ज़िम्मेदार लड़की, बस एक ही कमी थी उसमें लोगों के हिसाब से, उसकी हाइट।
हाँ, छोटे कद की थी वो और उसकी इस शारीरिक कमी के लिए उसे न जाने क्या क्या सुनना पड़ता था? मानों उसके हाथ में था ये सब! उसने जानबूझकर अपना कद कम किया हो।
उसकी सारी अच्छाइयों को छिपाने के लिए उसके कद को जरिया बनाया जाता था। उसे जताया जाता था हमेशा की वो छोटी है, उसका मजाक बनाया जाता था कि ये नहीं कर सकती वो, यहाँ नहीं पहुँच सकती वो, ये तो इसके बस का ही नहीं है, वगेरह वगेरह।
शालिनी को बुरा तो बहुत लगता था पर वो उन्हें जवाब देना जरुरी नहीं समझती थी। उसने सोच लिया था कि वह लोगों के तानों का जवाब अपने हुनर से देगी, अपने काम से देगी, उनसे लड़ कर नहीं। जैसे जैसे उसकी उम्र शादी के लायक होती गई लोगों के ताने भी बढ़ गए पर उसने परवाह नहीं की।
धीरे धीरे शालिनी की माँ से भी कहा जाने लगा कि “तुम्हारी लड़की की हाइट तो छोटी है, कोई अच्छा लड़का नहीं मिलेगा तुम्हारी शालिनी को”। शालिनी की माँ भी पलट कर जवाब में बिना हिचके कह ड देती थी कि “क्या कमी है मेरी बेटी में? जो उसकी खूबियों को नहीं समझते उनमें और उनकी सोच में कमी है, मेरी बेटी में नहीं।”
शालिनी की माँ लोगों से तो कह देती थी पर मन ही मन वो भी जानती थी लोगों की सोच को और डरती थी अपनी बेटी के भविष्य को लेकर। उसने कभी भी शालिनी को जाहिर नहीं होने दिया पर शालिनी समझ गयी थी अपनी माँ की चिंता को।
उसने माँ से आगे बढ़कर बात की और उसे समझाया, “माँ आप चिंता मत करो।” जो इंसान मेरे व्यक्तिव से नहीं, मेरे बाहरी रंग रूप से मेरी पहचान करेगा वो ज़िंदगी भर मेरा साथ क्या निभायेगा? मैं जैसी हूँ,वही मेरी पहचान है।
वो आगे बोली, “माँ आपने वो कहावत तो सुनी होगी की “बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर? पंछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।”
मैं अपनी कमी को अपनी ताकत से हरा दूंगी। और तब ही शादी करुँगी जब मुझे, मैं जैसी हूँ वैसे ही स्वीकार किया जाएगा और वो भी सम्मान के साथ, तब तक हम इस बारे में बात भी नहीं करेंगे।
शालिनी लोगों की कही बातों को पीछे छोड़ कर और अपनी माँ को समझाकर अपनी आईएस की परीक्षा की तैयारी में पूरे जोर शोर से लग गयी, “अब उसका एक ही लक्ष्य था अपनी योग्यता से अपने व्यक्तिव की पहचान बनाना ना की अपने कद से।”
रिजल्ट आया तो सब हैरान हो गए, शालिनी ने पहले ही प्रयास में आईएस क्लियर कर लिया था और साथ में ही कर दिया उन सभी लोगों का मुँह बंद जो हमेशा उसे कोसने के लिए ही मुँह खोलते थे।
कुछ ही महीनों में उसने अपने व्यक्तिव से,अपने काम से अपनी एक अलग पहचान बना ली थी और बना ली थी जगह समीर के दिल में भी। समीर शालिनी को अपना जीवन साथी बनाना चाहता था उसकी अच्छाइयों की वजह से न कि वो कैसी दिखती है इस वजह से।
शालिनी बहुत खुश थी कि उसकी खोज पूरी हो गयी उसे वो मिल गया जिसकी सोच उसकी सोच से मेल खाती है।
कैसी लगी आज की कहानी, कमेंट करके जरूर बताये।और अगर अच्छी लगी हो तो फॉलो जरुर करे।
©®दीपिका
बंद करो,अब बहुत हो गया।
क्यूँ ये हाहाकार है? क्यूँ चारों तरफ़ मचा चीत्कार है?
क्यूँ अपनी आबरू खोने के बाद भी वो करती इंसाफ़ का इंतज़ार है?
क्यूँ डर है आँखों में उसकी? क्यूँ डरा हुआ और सदमे में उसका परिवार है?
क्या गलती थी उसकी, जो वो चिता पर और खुली हवा में घूम रहे उसके गुनहगार है?
बंद करो, अब बहुत हो गया।
बंद करो, अब बहुत हो गया।
ना समझो उसे भोग की वस्तु,
वो तो किसी की लाड़ली बेटी, बहू, पत्नी और परिवार के जीने का आधार है।
क्यूँ ये हाहाकार है?
क्यूँ चारों तरफ़ मचा चीत्कार है?
ये कैसी विडंबना है? ये कैसा सामाजिक सरोकार है? एक तरफ पूजी जाती है जो कन्या देवी के रूप में नौ दिन, क्यूँ बनती वही उन वैश्यी दरिंदों का शिकार है?
कहाँ जा रहे है हम? क्या ये ही हमारे संस्कार है?
कोई घर से निकलने में डर रही है, तो कोई घर में ही डर के साए में जीने को लाचार है।
क्यूँ ये हाहाकार है?
क्यूँ चारों तरफ़ मचा चीत्कार है?
हर घाव शरीर का, उसकी आत्मा को झलनी कर जाता है।
जीना चाहती हूँ मैं, कहकर दिल का हर दर्द उसकी आँखों में उतर आता है।
बंद करो, अब बहुत हो गया।
बंद करो, अब बहुत हो गया।
ना समझो उसे भोग की वस्तु,
वो तो किसी की लाड़ली बेटी, बहू, पत्नी और परिवार के जीने का आधार है।
कैसे विकृत मानसिकता को बढ़ावा दिया जाता है?
जो जघन्य, क्रूर और बर्बर अपराधी है, कैसे उसकी दया याचिका पर विचार किया जाता है?
जुल्म करते वक़्त जो अपराधी अपनी उम्र का होश खो बैठता है,
बाद में, गलती हो गयी कहकर अपनी उम्र का हवाला देकर सज़ा को कम करने के हजारों रास्तों के द्वार खुलवाता है।
क्या हो गया है हमें, कहाँ जा रहे है हम?
सिर्फ मोमबत्ती लेकर रास्तों पर बैठना समस्या का हल नहीं है, किसी भुलावे में जी रहे है हम।
सोच बदलने की जरुरत है वो लड़कियाँ है, भोग की वस्तु नहीं।
जला कर राख कर देंगी जो अगली बार उठी ऊँगली कोई भी।
बंद करो, अब बहुत हो गया।
बंद करो, अब बहुत हो गया।
ना समझो उसे भोग की वस्तु,
वो तो किसी की लाड़ली बेटी, बहू, पत्नी और परिवार के जीने का आधार है।
©®दीपिका