दूसरों के लिए छोटा पर उसके लिए उसका आत्मसम्मान तब शायद सबसे बड़ा हो जाता है।
अपने ज़मीर की आवाज़ सुनना अब उसके लिए बेहद जरुरी हो जाता है।
हर दूसरे पल सवाल उठाया जाता है जब उसके अस्तित्व पर,
मौन रहकर भी बिना कुछ बोले ही सिर्फ भंगिमाओं से उसे दोषी ठहराया जाता है।
खो देती है वो अपनी पहचान अपनी नज़रों में ही, जब उसे उसका ही अक्श दूसरों के चश्मों से दिखाया जाता है।
पड़ जाती है सोच में कि किया क्या है ऐसा उसने? जो हर बार हर गलती का ज़िम्मेदार उसे ही ठहराया जाता है।
©®दीपिका
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