वो आएं थे ढेरों आरजूएं लेकर शहर की ओर,
अब जब जा रहे है तो बहुत सी ख़्वाहिशें दफ़न कर जा रहे है।
पता नहीं अब कब वापस आएंगे इन रास्तों पर मुड़ कर,
जिन पर नंगे पाँव चले जा रहे है।।
जिन्हें अपने सपनों को मंज़िल पहुँचाने के लिए चुना था,
अब उन्हीं राहों को पीछे छोड़े जा रहे है।
जो बनाते थे कभी सबके सपनों का घर,
आज वही एक छत और दो जून की रोटी की तलाश में
भटके जा रहे है।।
वो आएं थे ढेरों आरजूएं लेकर शहर की ओर,
अब जब जा रहे है तो बहुत सी ख़्वाहिशें दफ़न कर जा रहे है।।
जो गलियां, जो शहर लगता था कभी अपना सा,
अब वही क्यूँ परायों की गिनती में खड़े नज़र आ रहे है।
सोचा ना था!!
एक दिन ऐसा भी आएंगा जब सड़के सूनी और शहर
वीरान हो जाएंगा।
कोई मज़दूर बेउम्मीद होकर वापस लौट जाएंगा।।
©® दीपिका
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