चलिए आज बात करते है “बातें कुछ अनकही सी” में कुछ उस अनकहे दर्द के बारे में, जिसे कई बार हम समझ पाते है और कई बार जाने अनजाने अनसुना कर देते है अपनी ज़िंदगी की भाग दौड़ में।
भी दर्द है इस ज़माने में
खुदगर्ज़ी की इन्तेहाँ तो देखो, वो दर्द भी दिए जाते है और “बेकसूर” भी कहलाते है,
क्या करे अपना दर्द बयां?
और भी दर्द है इस जमाने में, चलो किसी बंद दरवाजें को ताज़ी हवा के लिए खोल के आते है।
पैबंद तो कई है आज भी उसकी पोशाक पर,
पर नज़रों के वार उसके वजूद को तार तार किए जाते है।
और भी दर्द है इस जमाने में, चलो किसी बंद दरवाजें को ताज़ी हवा के लिए खोल के आते है।
बहुत बड़ी तादाद है अभी भी ऐसे लोगों की, जो कि सिर्फ अपने दर्द को सबसे बड़ा पाते है।
किसी की टूटी चारपाई और किसी की घिसी चप्पलें उनका “हाल ए दर्द” छुपा भी नहीं पाते है।
क्या कहे और क्या नहीं, इतना अंतर भी अपनी मासूमियत में समझ भी नहीं पाते है,
और भी दर्द है इस जमाने में, चलो किसी बंद दरवाजें को ताज़ी हवा के लिए खोल के आते है।
खुद गर्ज़ इतने भी ना बने कि खुदगर्ज़ी खुद शर्म के चोले में छुप जाए।
कोई भूखा, कोई बीमार सिर्फ़ मदद की आस में हाथ फैलाता ही रह जाए।
चलो कुछ कम करने की कोशिश करते है ऊँच नीच के फ़ासलें को और आधी आधी बाँट कर खाते है।
और भी दर्द है इस जमाने में, चलो बंद दरवाजों को ताज़ी हवा के लिए खोल के आते है।
©®दीपिका
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