स्वागत है आप सभी लोगों का “बातें कुछ अनकही सी” के पाँचवे भाग में जहाँ आज हम बात करेगें मानवता की, इंसानियत की, जो आजकल कुछ खोई हुई सी लगती है। पूरी तरह से तो नहीं क्यूँकि कुछ लोग है जो कि आज भी रोशनी का दिया जलाए हुए है।और आशाओं की किरणें बिखेर रहे है।
आशा करती हूँ कि ये उजाला सब जगह फैले और हम फिर से अपनी जड़ों से जुड़े।

इंसानियत जो कुछ खो सी गई है
कहाँ ढूंढू इसे, क्यूँ थोड़ी रूठी हुई सी है।
कभी सज़दे तो कभी किसी की दुआओं में अक़्सर मिल जाया करती थी मुझे।
पता नहीं क्यूँ अब लाख ढूढंने पर भी दिखती नहीं है मुझे।
ऐसा तो नहीं है कि रहबरों की कमी है इस “महफ़िल ए दुनिया” में,
पर जो पहले घर घर थी क्यूँ अब कुछ चंद ठिकानों पर ही टिक गई है।
इंसानियत जो कुछ खो सी गई है, कहाँ ढूंढू इसे, क्यूँ थोड़ी रूठ सी गई है।
इंसान को उसकी इंसानियत से ही पहचाना जाता है, दूसरे चोले तो औरों के भी पास मिलेंगे।
ये रहमत ख़ुदा की है जो खुद की पहचान में खुद से मिलने की वज़ह बनेगें।
मुश्किल कोई नहीं है, शायद बस थोड़ा रास्ता भटक गए है।
भागते भागते कुछ चंद चीज़ों के पीछे इंसानी खूबसूरती को भूल गए है।
ये गहना है, श्रृंगार है इंसानों का, जो उसे खुद से जोड़ कर रखता है,
वरना तो कब के बिख़र गए होते हम, अगर इंसानियत का सहारा नहीं मिला होता।
अगर है वो खूबी तो क्यूँ जाऱ जाऱ सी हो गई है।संभालते संभालते भी क्यों इंसानियत तार तार सी हो गई है।
इंसानियत जो कुछ खो सी गई है,कहाँ ढूंढू इसे, क्यूँ थोड़ी रूठी हुई सी है।
आशा करती हूँ कि आज की कविता आपको पसंद आई होगी। मिलती हूँ कल फिर एक नए विषय के साथ। तब तक के लिए आपको छोड़ कर जाती हूँ इन सवालों के साथ। सोचिएगा जरूर।
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©®दीपिका
और भी दर्द है इस ज़माने में!https://myaspiringhope.wordpress.com/2020/04/04/aur-bhi-dard-hai-is-zamane-main/
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वीडिओ लिंक
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