साबित किया है जिसने कई बार अपने अस्तित्व को हर कड़े पैमानों पर,
कभी मर्यादा, कभी इज़्ज़त तो कभी चलती परंपरा के नामी बहानों पर।
लड़की होने का एहसास जिसे हर पल करवाया जाता हो,
सहना है तुम्हें, एडजस्ट भी करना है इस जिम्मेदारी का भार भी जिसके कंधों पर ही चढ़ाया जाता हो।
गर करती है ये सब तो कुछ समय के लिए वो कहलाती है संस्कारी,
पर बने बनाये रास्तों पर न चलने पर सबसे पहला सवाल भी उस पर ही उठाया जाता है।
हाँ, बदल रही है वो भी थोड़ा थोड़ा और कोशिश कर रही है अपने आस पास के वातावरण को भी बदलने की,
पर ये सच है कि कुछ चीज़ें एक लड़की के लिए आज भी नहीं बदली।
अब वक़्त आ गया है वो भी समझे कि अपने हक के लिए बात करना कतई गलत नहीं है,
औरों की तरह उसे भी मिली है एक ही ज़िंदगी, सहयोग की अपेक्षा रखना बिल्कुल सही है।
एक ऐसे समाज का निर्माण मिलकर हमें ही करना होगा,
जहाँ पर एक लड़की खुलकर मना सके उत्सव एक लड़की होने का,
इस पहल का साक्षी इस समाज को ही बनना होगा।
काफ़ी सुधारों को देखकर मन में एक आशा की किरण जागी है,
वो है उजाला उस सूरज का, जिसे देख कर काली रात भी भागी है।
बस यूँ ही चलती रह तू अपनी मंज़िल की तरफ़,आते तूफानों का भय ना कर,
तू भी जान चुकी है अपनी ताक़त को,बस सारी परेशानियों को भुला कर लगी रह, लगी रह, लगी रह।
~~~दीपिकामिश्रा