योग्यता

योग्यता क्या है तुझमें? तू ये भली भांति जनता है।
तो फिर क्यूँ पड़ता है गर्दिशों में, अगर सच्चाई को पहचानता है।

दूसरों की कही बातें, हो सकता है छलावा हो।
तू गर खुद में है काबिल इतना तो फिर किस बात का दिखावा हो?

ये तो दुनिया है, कुछ तो लोग कहेंगें ही।
फैसला तुमको करना है कि तुम उलझते हो या बच निकलते हो सादगी के संग ही।

तेरी रूह की सच्चाई को वो भी झुठला ना पाएगा।
तू निकल जाएगा आगे इन दलदलों से और वो हाथ मलता रह जाएगा।

©®दीपिका

छुट्टी वाला संडे?

उमा और निशा बचपन की सहेलियाँ थी, शादी के काफी सालों के बाद दोनों एक दूसरे से मिल रही थी।

चाय की चुस्की लेते हुए उमा ने निशा से पूछा “इस संडे का क्या प्लान है तुम्हारा”? फ्री हो तो मूवी के लिए चलते है?

निशा बात को टालते हुए बोली “नहीं यार, बिल्कुल टाइम नहीं है, बहुत बिजी हूँ।”

उमा सुनकर थोड़ा हैरान हुई, तू मना कर रही है और मूवी के लिए, विश्वास नहीं होता। एक टाइम था तू “फर्स्ट डे फर्स्ट शो” क्वीन के नाम से पूरे कॉलेज में फेमस थी।

“नहीं यार, मना कर दिया ना, नहीं हो पायेगा। क्यूँ बेवजह की ज़िद कर रही है?” निशा से झिड़कते हुए बोला।

“अरे निशा, कौनसा भैया को ऑफिस जाना होता है और बच्चों को स्कूल?” इतना टाइम तो निकाल ही सकती है तू अपने लिए। कौनसा पूरा दिन मांग रही हूँ तुझसे, 3 घंटे की ही तो बात है।

“तेरे लिए तीन घंटे होगें मेरे लिए तो 3 दिन का काम बढ़ जाएगा।”

“क्या हुआ निशा परेशान लग रही है,” उमा ने चाय का कप टेबल पर रखते हुए बोला।

“क्या बताऊँ यार, मेरे लिए हफ्ते के सातों दिन और साल के 365 दिन बराबर है। कोई “संडे”नहीं, कोई छुट्टी नहीं, उल्टा संडे को तो रोज की तुलना में दुगुना काम हो जाता है और कोई हाथ बंटाने वाला नहीं है।”

इतना कहकर निशा रुक सी गई और आँखों की नमी को छुपाने की कोशिश करने लगी।

उमा को समझने में देर नहीं लगी, उसने बात आगे बढाते हुए पूछा कि “क्यूँ उसकी कोई मदद नहीं करता?”

“तू भी ना एकदम झल्ली है, कौन मदद करेगा मेरी?”, मम्मीजी तो अक्सर बीमार ही रहती है, वो तो एक कप चाय भी बनाकर नहीं पीती अपने आप से।ठीक हो तो भी और कुछ परेशानी हो तो बात की अलग है। इनका तो पूरा दिन ही आफिस में निकल जाता है और बचा कौन बच्चे। उनकी उम्र थोड़े ही मदद करवाने की।”

“मैं तो तरस गयी हूँ एक अदद संडे के लिए, किसी को कोई फ़र्क भी नहीं पड़ता कि मुझे भी अपना संडे चाहिए, जब मैं भी देर तक सो सकूँ, सबका मनपसंद नाश्ता और खाना बनाने से छुट्टी मिल सके। मैं भी देर तक बैठकर अपना मनपसंद प्रोग्राम एन्जॉय कर सकूँ।

उमा ने निशा का हाथ अपने हाथ में लिया और समझाते हुए बोली कि “इसमें जितनी गलती उन लोगों की है उससे ज्यादा तुम्हारी है।अपने हक़ की आवाज़ तुम्हें खुद उठानी चाहिए।”

“सबका ख्याल रखना अच्छी बात है पर अपने बारे में सोचना भी उतना ही जरुरी है। सबको ये एहसास करवाना कि तुम सब कुछ कर सकती हो और तुम्हें किसी की मदद नहीं चाहिए, ये भी गलत है।”उमा बोली।

उन्हें भी ये पता लगना चाहिए कि सारी जिम्मेदारियाँ अकेले उठाना कोई मज़ाक बात नहीं है। अगर तुम नहीं बोलती हो तो भी उनका फर्ज़ बनता है कि आगे बढ़ कर पूँछे। उमा लगातार बोले जा रही थी और निशा सुन्न होकर उसकी बातें सुनती ही रही।

उमा तूने तो मेरी आँखें खोल दी कैसे शुक्रिया करूँ मेरी दोस्त,आँसू पोंछती हुई निशा बोली। आज ही मैं सबसे बात करती हूँ और हाँ अगले संडे के लिए टिकट बुक करके रखना, मैं जरुर आऊँगी।

निशा के चेहरे पर मुस्कान थी और उमा अपनी दोस्त को मुस्कुराते हुए देख कर मानों सातवें आसमां पर थी।

https://myaspiringhope.wordpress.com/2019/12/03/sunday-ki-talaash/

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©®दीपिका

बीमारी में फर्क कैसा?

उषा किचन साफ़ करके जैसे ही बिस्तर पर आई तो महसूस किया कि उसका पूरा बदन तेज़ बुखार से तप रहा था, कमज़ोरी भी महसूस हो रही थी।

उसने दवाई ली और सोने की कोशिश करने लगी पर दर्द की वजह से ठीक से सो नहीं पा रही थी, पूरी रात इधर से उधर करवट बदलती रही। आँख लगी ही थी कि हॉल से आवाज़ आई, आज चाय नहीं मिलेगी क्या?

उषा को एहसास हुआ कि सुबह हो चुकी थी, पति को अपनी तबियत के बारे में बिन बताए जैसे तैसे उसने नाश्ता बनाया और टिफिन पैक करके पति को ऑफिस और बच्चों को स्कूल भेजा।

अब उषा बिल्कुल भी अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो पा रही थी वह अपने कमरे में जाकर बिस्तर पर लेट गयी। उषा की सासूमाँ इस बात से मन ही मन परेशान होने लगी थी कि अब आज खाना कौन बनाएगा?

उषा बिस्तर पर लेटे लेटे ये सोचने लगी कि कैसे वह सबके लिए उनकी एक छींक आने पर भी एक टांग पर खड़ी रहती है। दवाई, खाना-पानी सबको टेबल पर रखा मिल जाता है और आज जब वो बीमार है तो उसकी तबीयत ख़राब होने से ज्यादा परेशान लोग इस बात से है कि काम कौन करेगा?

उसकी आँखों से आँसू आ गए कि खाने में नमक कितना पड़ेगा और मसाले का हिसाब क्या है ये तक बताने के लिए अब उसे बार बार बिस्तर से उठना पड़ेगा।

वह सोच में पड़ गयी कि कीमत क्या है उसकी इस घर में? एक काम करने वाली बाई को भी महीने में पाँच छह छुट्टी मिल ही जाती है, वो भी अपनी शर्तों पर ही काम करती है घर में। कोई ज्यादा ना नुकर करता है तो फट से बोल देती है “हिसाब कर दो मेरा”।

पर एक बहु का क्या इतना भी हक़ नहीं है कि बीमार पड़ने पर वो अपनी मर्ज़ी से आराम तक कर सके? अगर उसका मन न करे काम करने का तो खुलकर अपनी तकलीफ अपने परिवार वालों के सामने रख सके।

उसे डर ना हो इस बात का कि उसे इस बात के लिए भी ताना सुनाया जायेगा कि “आजकल की बहुएँ तो छुइमुई सी हो गयी है, हवा लगते ही बीमार पड़ जाती हैं।”

ये सब सोचते सोचते ना जाने कब उसे झपकी लग गयी, उसकी नींद फिर एक आवाज़ से टूटी। “बहु बच्चे आने वाले है, खाना नहीं बनेगा क्या आज?”

उषा धीरे से उठते हुए और अपने कपड़ों को सही करते हुए किचन की तरफ कदम बढ़ा देती है।