हम औरतें क्यूँ हक दे देती है किसी और को खुद पे सवाल उठाने का। जब एक आदमी सम्पूर्ण हो सकता है अपनी खामियों के साथ तो एक औरत क्यूँ नहीं?
हम खुद अपनी बराबरी का दावा कम दे देते है खुद की कमियों को बड़ा मानकर। खुद को परफ़ेक्ट दिखाने की हौड़ में शामिल होकर। हमने ही शुरू की है ये दौड़ शायद।बिना रुके लगातार दौड़ते रहने की आदत।
शिखा डिप्रेशन में चली गई रही आयुष को जन्म देने के बाद। उसके माँ बनते ही परिवार की तरफ़ से ढेरों हिदायतें आने लगी थी और ताने भी कि तुम्हें ये भी नहीं आता,वो भी नहीं सिखाया तुम्हारी माँ ने।
हमने भी सब अकेले ही संभाला था कोई नहीं था हमें भी बताने वाला। शिखा को लगता था कि वो ही बस माँ बनी है, शेखर तो बाप बने ही नहीं, क्यूँ उन्हें नहीं कोई समझाता कि उन्हें भी अब बहुत कुछ बदलना होगा।
ये शिखा की ही नहीं उन हज़ारों लाखों औरतों की कहानी है जो पहली बार माँ बनती है। पूरी ज़िंदगी 360° घूम जाती है और शिकार हो जाती है निराशा का।
बात यहाँ पर माँ बनने की ही नहीं है और भी कई ऐसे पहलू है जिसमें हम औरतें दूसरों की ऐनक से देखे जाने लगते है।
कोई बात नहीं है अगर परफ़ेक्ट नहीं है, हम भी एक इंसान ही है हाड़ मांस का शरीर, कोई मशीन नहीं, कोई कठपुतली नहीं, जिसकी डोर हमेशा दूसरे के हाथ में हो। हमें भी उड़ना पसंद है, अपनी मर्ज़ी से जीना पसंद है पर अगर हम अपनी इच्छाओं को बाज़ू रख परिवार को पहला दर्ज़ा देते है या नहीं भी देते है तो इससे कुछ नहीं बदलना चाहिए हमारी परिभाषा में।
मैंने उड़ना सीख लिया है, खुद को खुद से जोड़ लिया है।मिले ना मिले तवज़्ज़ो मेरी ख्वाहिशों को, मैंने खुद अपनी तस्वीर में रंग भरना सीख लिया है।
©®दीपिका
बहोत खूब बंधु
LikeLiked by 2 people
Bahut bahut Dhanyawaad!
LikeLiked by 1 person
Follow my blog
LikeLiked by 1 person
Followed👍
LikeLike
Thankuu
LikeLike