क्यूँ सिर झुकाए खड़ा है तू?

क्यूँ सिर झुकाए खड़ा है तू, बोलियों के इस बाज़ार में?

जानता है गर कद्र अपनी तो बढ़ जा आगे,
झोंक कर बेबसी को अपनी, मजबूरियों की अंगार में।

आत्मबल और सच्चाई ख़ासियत है तेरे व्यक्तित्व की,
जो भूल गया है तू व्यर्थ के दिखावे की लड़ाई में।मत हो मायूस समाज के उन तानों से,

जो सपनों को तोलते है तेरे अपनी इच्छाओं के पैमाने पे।मिल जाएगा जवाब उन्हें भी, तेरे काम की गहराइयों में,

जो आँकते थे हुनर को तेरे, नाकामयाबियों की कतार में।

क्यूँ सिर झुकाए खड़ा है तू, बोलियों के इस बाज़ार में?

©®दीपिका

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